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जैविक विधि से जीरा उत्पादन तकनीक

10 Jun, 2021 11:28 AM

जीरा का उपयोग मसाला, आयुर्वेदिक औषधि तथा सुगंध उद्योग में खुशबू के लिए प्रयोग किया जाता है। इसकी खेती से कम लागत व कम समय में अधिक आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है। 

FasalKranti
समाचार, [10 Jun, 2021 11:28 AM]

जीरा का उपयोग मसाला, आयुर्वेदिक औषधि तथा सुगंध उद्योग में खुशबू के लिए प्रयोग किया जाता है। इसकी खेती से कम लागत व कम समय में अधिक आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है। जीरा उत्पादकों को अधिक उपज व उचित प्रबंध हेतु निम्नलिखित उन्नत प्रौद्योगिकी अपनानी चाहिए।


जलवायु:- 


जीरे की फसल को उगाने के लिए हल्की ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। अच्छी पैदावार के लिए साफ बादल रहित मौसम का होना आवश्यक है। फूलों की अवस्था में अधिक नमी से बीमारियों के लगने की संभावना बढ़ जाती है। फूल व बीज बनने की शुरू की अवस्था में पाले का असर पड़ सकता है।


भूमि:- 


जीरे की उत्तम खेती के लिए जीवांशयुक्त, उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त रहती है। भूमि में जल निकास का उचित होना आवश्यक है क्योंकि जल का ठहराव व अधिक नमी दोनों ही हानिप्रद हैं। मध्यम भारी परंतु अच्छी जल निकास वाली भूमि में भी जीरे की खेती की जा सकती है।




उन्न्त किस्में:-


राजस्थान जीरा 19 – यह किस्म 125 दिन में पक कर तैयार होती है तथा राजस्थान के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसकी उपज 8-10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 2.6 प्रतिशत होती है।


राजस्थान जीरा 209 – यह किस्म राजस्थान के लिए उपयुक्त है तथा पकने में 120-125 दिन का समय लेती है। इसकी उपज 6-7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है।


गुजरात जीरा 1 –  यह किस्म 105-110 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें 3.6 प्रतिशत वाष्पशील तेल की मात्रा पाई जाती है।


गुजरात जीरा 2 - यह प्रजाति 100 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें 3.6 प्रतिशत वाष्पशील तेल की मात्रा पाई जाती है।


गुजरात जीरा 3 - यह किस्म उकठा रोग सहने की क्षमता रखती है। इसकी उपज 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है।


गुजरात जीरा 4 - यह 115-120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 12 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 4.9 प्रतिशत होती है तथा यह उकठा रोग के लिए प्रतिरोधी है।




खेत की तैयारी:- 


अच्छे उत्पादन के लिए भूमि को भली भांति तैयार करना आवश्यक है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 2-3 जुताइयां देशी हल या हैरो से की जा सकती है। इसके पश्चात् पाटा लगाकर मिट्टी को बारीक करके खेत को समतल करें। अच्छे अंकुरण के लिए प्रारंभिक अवस्था में खेत में उचित नमी का होना आवश्यक है।


बुवाई का समय:-मध्य अटूम्बर से मध्य नवम्बर


बीजदर:- 12-16 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर




बीजोपचार:- बीज जनित रोगों से बचाव के लिए 5-10 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज दर से ट्राइकोडर्मा जैविक फफूंदनाशी से बीज को उपचारित करना चाहिए इसके पश्चात् बीज को एजोटोबैक्टर, पी. एस. बी. एवं पौटाश जैव-उर्वरक से उपचारित कर थोड़ी देर हवा में सुखाकर बोना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो जिंक के जैव उर्वरक का उपयोग कर सकते हैं। जैव उर्वरक की मात्रा का प्रयोग उत्पादक के अनुमोदन के अनुसार करते हैं।


बुवाई की विधि:- जीरे की बुवाई दो प्रकार से छिटकवां विधि से या लाइनों में की जाती है लेकिन लाइनों में बुवाई करना अधिक सुविधाजनक रहता है। इस विधि में निराई-गुड़ाई तथा कटाई करने में भी कठिनाई नहीं होती है। लाइन से लाइन की दूरी 25 सेंमी. रखनी चाहिए और अंकुरण के पश्चात् फालतू के पौधों को निकालकर पौधे की दूरी लगभग 10 सेंमी. कर देनी चाहिए। बीज को 1.5 सेंमी. से अधिक गहरा न बोएं अन्यथा बीज के जमाव पर विपरीत असर पड़ सकता है। बुवाई के समय खेत में नमी कम हो तो बुवाई के उपरांत हल्की सिंचाई की जा सकती है। छिटकवां विधि में बीज को समतल क्यारियों में समान रूप से बिखेरकर उनको हाथ से या रेक द्वारा मिट्टी में मिला दिया जाता है।     


खाद एवं जैविक उर्वरकः- खाद एव जैविक उर्वरक की मात्रा मिट्टी का परीक्षण करवा कर ही सुनिश्चित करना चाहिए। जीरे की अच्छी पैदावार के लिए बीजाई से लगभग 3 सप्ताह पहले खेत में औसतन 15-20 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद डालना चाहिए। बुवाई के समय घन जीवामृत 500 से 600 किलो प्रति हैक्टेयर खेत में डालना चाहिए।


सिंचाई एवं तरल खाद का प्रयोग:- जीरे की फसल में लगभग 3-5 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। यदि बुवाई की प्रारंभिक अवस्था में नमी की कमी हो तो एक बुवाई के तुरंत बाद एक हल्की सिंचाई कर सकते हैं। मौसम व मिट्टी की किस्म के आधार पर सिंचाई 15-25 दिन के अंतराल पर की जा सकती है। सिंचाई के प्रत्येक जल के साथ जीवामृत एवं वेस्ट डीकम्पोजर घोल को 600-800 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग अवश्य करना चाहिए। प्रयास यह रहे कि खाली जल से सिंचाई न करें। जीवामृत का कम से कम दो बार प्रयोग अवश्य करें। इससे उत्पादन अच्छा मिलता है।


अंतः कृषि क्रियाएं एवं खरपतवार नियंत्रण:- जीरे की अच्छी फसल लेने तथा खेत को खरपतवार मुक्त रखने के लिए दो से तीन निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। लगभग हर 30 दिन के अंतर पर निराई-गुड़ाई की जानी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई के समय फालतू के पौधों को निकालना आवश्यक है।


सल्फर का प्रयोग:- जीरा मे तेल तथा सुगंध हेतु सल्फर बहुत आवश्यक होता है। इसके लिए फूल निकलने से पूर्व तथा दाना बनने के बाद आर्गेनिक प्रमाणित घुलनशील सल्फर 2 प्रतिशत का घोल बनाकर फसल पर स्प्रे करते हैं।




फसल सुरक्षा:-


पाले से बचाव:- फसल को पाले से बचाने के लिए सिंचाई करना आवश्यक होता है। इसके अलावा फूलों की अवस्था में पाले की संभावना होने पर धुएं के आवरण का प्रबंध भी किया जा सकता है।


दीमक:- 


  • दीमक के नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व 2-3 लीटर देशी गाय के दूध से बने छाछ या मट्ठे में 8 से 10 चना के बराबर अच्छी किस्म की हींग को मिलाते हैं। अब इसे अच्छी तरह खेत में स्प्रे कर 1 से 2 घंटे बाद बुवाई करना चाहिए।
  • 100 ग्राम हींग को पोठली में रखकर सिंचाई के दौरान पानी की नाली मे लटकाने से दीमक भाग जाती हैं।                                                                                                
  • बुवाई के बाद मटके में किनारे पे 4-6 छेद करते हैं तथा दाना निकलने बाद बचे हुए मक्का/भुट्टे की 8-10 गिल्ली अथवा सुखे उपले/कंडे को डालकर मुंह पर कपड़ा बांधकर मटके को खेत में 80 से 100 फिट की दूरी पर गाड़ते हैं। मटके का मुंह जमीन के ऊपर रखते है। कुछ दिन के पश्चात् खेत की दीमक मटको में एकत्रित हो जाती है अब इसे गर्म कर दीमक को मार देते है अथवा मुर्गियों के सामने रख दें। सारी दीमक मुर्गिया खा जायेगी।
  • नीम की खली का मृदा में प्रयोग करने से भी दीमक को नियंत्रित किया जा सकता है।




चेपा (मोयला):-


  • चेपा के नियंत्रण हेतु यलो स्टीकी ट्रैप को खेत में लगाते है।
  • नीम पत्ती का अर्क, नीम तेल, कंरज की पत्ती का अर्क, पुराना गौ मुत्र का  स्प्रे 5 से 8 दिन के अन्तराल पर करने से चेपा का नियंत्रण होता है।


पाउडरी मिल्डयू (छछाया रोग):-


  • आर्गेनिक सर्टीफाइड गुलनशील सल्फर का 0.2 प्रतिशत घोल का स्प्रे करते हैं।
  • तांबा के साथ पुरानी की गई छाछ का स्पे करते है।


झुलसा (ब्लाइट):-


  • फूल की अवस्था में अधिक नमी एवं बादल के मौसम में ट्राइकोडर्मा नामक जैविक फफूंदनाशी का स्प्रे करते हैं। जिसे 8-10 दिन के अन्तराल पर दोबारा भी किया जा सकता है।
  • उकठा रोग – उकठा रोग के बचाव हेतु निम्न उपायों को अपनाना चाहिए।
  • गर्मी में गहराई जुताई कर खेत को खुला छोड दें।
  • बीज को ट्राइकोडर्मा नामक जैविक फफूंदनाशी से उपचारित कर बुआई करें।
  • 5-6 किलोग्राम ट्राइकोडरमा नामक जैविक फफूंदनाशी को 100 किलो सड़े गोबर की खाद/ वर्मीकम्पोस्ट की खाद, जिसमें पर्याप्त नमी हो, में मिलाकर मोटी पोलीथीन सीट से ढककर 8-10 दिन रखते हैं। इसके पश्चात् बुवाई से पूर्व अन्तिम जुताई के समय प्रति हैक्टेयर खेत मे समान रूप से बिखेर कर मिला दें।       

बीज हेतु फसल कटाई:- कटाई से एक दिन पहले पूरे खेत से अच्छे पौधों को चुन कर अलग कटाई कर 5-6 दिन तक के लिए सूखने के लिए रखते हैं। अब डंडे से पीट कर जीरा / बीज अलग करते हैं। साफ बीज को 4-5 दिनों तक धूप में सुखाना चाहिए और इसे  अगली फसल के बीज हेतु प्रयोग करते हैं।


कटाई:- जीरे की फसल किस्म के अनुसार लगभग 90 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। कटाई के लिए तैयार फसल से पूरे पौधों को उखाड़ लिया जाता है और खलिहान में 5-6 दिन तक के लिए सूखने के लिए रखते हैं।


मड़ाई:- सुखाने के पश्चात् थ्रेशर से मड़ाई करते हैं। एक हैक्टेयर से औसत 8-10 क्विंटल की उपज प्राप्त की जा सकती है।


पैकिंग एवं भंडारण–  प्राप्त जीर को साफ कर 4-5 दिनों तक धूप में सुखाना चाहिए। नमी 8 प्रतिशत तक हो तो सूखी और साफ जीरे को नए एच.डी.पी.ई. बैग में रखें और सूखी जगह पर स्टोर करें। 




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