सिरमौर जिले में लहसुन की खेती ने पिछले एक दशक में जबरदस्त प्रगति की है, जहां 2015-16 में 1,500 हेक्टेयर क्षेत्र में लहसुन की खेती होती थी, वहीं अब यह आंकड़ा बढ़कर 4,000 हेक्टेयर तक पहुंच गया है। वार्षिक उत्पादन भी अब 60,000 मीट्रिक टन तक पहुंच गया है। हालांकि, इसके बावजूद जिले को हर साल लगभग 60 करोड़ रुपये की लागत से अन्य राज्यों, विशेषकर जम्मू-कश्मीर से लहसुन के बीज खरीदने पड़ते हैं।
यह जानकारी डॉ. वाईएस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय (UHF), नौणी में शुरू हुए दो दिवसीय जिला स्तरीय संगोष्ठी के दौरान सामने आई। “सिरमौर जिले में किसानों की आय बढ़ाने के लिए लहसुन बीज उत्पादन और मूल्य संवर्धन” विषय पर आधारित इस संगोष्ठी का आयोजन बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा किया जा रहा है। यह कार्यक्रम भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के मिशन फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर की स्पाइस योजना के अंतर्गत, कोझिकोड (केरल) स्थित सुपारी और मसाला विकास निदेशालय के सहयोग से आयोजित किया गया है। इसमें जिले के लगभग 100 प्रगतिशील लहसुन उत्पादक किसान भाग ले रहे हैं।
बीज विज्ञान विभागाध्यक्ष डॉ. नरेंद्र भरत ने बताया कि विभाग वर्ष 2015-16 से लहसुन, अदरक, हल्दी, धनिया और मेथी जैसी मसालों की व्यावसायिक खेती को प्रोत्साहित कर रहा है। इसके तहत खेत प्रदर्शन, बीज उत्पादन, तकनीकी हस्तांतरण, प्राकृतिक खेती और भंडारण अवसंरचना विकास पर कार्य किया गया है। उन्होंने कहा कि हर साल चार पंचायत स्तरीय प्रशिक्षण शिविर और एक जिला स्तरीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल ने लहसुन की खेती को जिले की सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान बताते हुए कहा कि सिरमौर को “वन डिस्ट्रिक्ट, वन क्रॉप” योजना के तहत लहसुन के लिए चिन्हित किया गया है। उन्होंने कीमतों में गिरावट और बाजार में अधिक उत्पादन जैसी चुनौतियों की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि खाद्य प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन के लिए किसानों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है ताकि मुनाफा बढ़ सके।
प्रो. चंदेल ने किसानों से आह्वान किया कि वे स्थानीय बीज उत्पादन के लिए विश्वविद्यालय के साथ मिलकर कार्य करें जिससे बाहरी निर्भरता कम हो और युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा हों। साथ ही, उन्होंने शोधकर्ताओं से लहसुन तेल निष्कर्षण और विकिरण तकनीक (radiation technology) पर भी शोध करने की बात कही ताकि भंडारण क्षमता, रोग प्रतिरोधकता और अंकुरण को नियंत्रित किया जा सके।
अनुसंधान निदेशक डॉ. संजीव चौहान ने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर लहसुन की गुणवत्ता और उत्पादन बढ़ाने पर बल दिया। उन्होंने लागत घटाने, किसान उत्पादक कंपनियों (FPCs) की भूमिका, और सामूहिक विपणन ताकत बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया।किसानों की रुचि को देखते हुए संगोष्ठी में बीज उत्पादन, जर्मप्लाज्म संरक्षण, पौध संरक्षण और मूल्य संवर्धन जैसे विषयों पर सत्र आयोजित किए जा रहे हैं। साथ ही, खाद्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा लहसुन आधारित उत्पादों के निर्माण पर प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। स्थानीय लहसुन किस्मों के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए एक प्रदर्शनी-सह-प्रतियोगिता भी आयोजित की जा रही है, जिसमें उत्कृष्ट प्रविष्टियों को पुरस्कृत किया जाएगा।
यह संगोष्ठी सिरमौर के लहसुन उत्पादकों को आय बढ़ाने, लागत घटाने और बीज आत्मनिर्भरता की दिशा में आवश्यक तकनीकी और जानकारी से सशक्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है।